श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ || Shri Prannath Jyanpeeth

श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ

||ब्रह्मज्ञान ही अमृत है - प्रेम ही जीवन है||

ज्ञानपीठ का दिव्य उद्देश्य

ज्ञान, शिक्षा, उच्च आदर्श, पावन चरित्र, व श्री प्राणनाथ जी की ब्रह्मवाणी (निजानन्द दर्शन) के साथ साथ भारतीय संस्कृति का समाज में प्रचार करना, तथा वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित आध्यात्मिक मूल्यों द्वारा मानव को महामानव बनाना ।

About Founder

इन देहरी की सब चूमसी खाक, सिरदार मेहरबान दिल पाक!!






श्री 5 पद्मावती पुरी धाम (मुक्ति पीठ) पन्ना, मध्यप्रदेश, भारत

अक्षरातीत सच्चिदानन्द स्वरूप परब्रह्म की ब्रह्मवाणी (निजानन्द दर्शन), ध्यान, चितवनि और अध्यात्म को समर्पित संस्थान




श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ
नकुड़ रोड़, सरसावा, सहारनपुर, उत्तर प्रदेश, भारत 247232

हमारे प्रेरणास्रोत सद्गुरु




परमहंस महाराज श्री रामरतनदास जी जिनके चरणों की छत्रछाया में श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ पल-पल उन्नति के पथ पर अग्रसर है!




सेवा, समर्पण एवं आस्था के प्रेरक "सरकार श्री" जगदीश चन्द्र जी


संस्थापक : श्री राजन स्वामी

श्री राजन स्वामी जी का जन्म सन् १९६६ में बलिया जिले के ग्राम सीसोटार में हुआ था । आपकी माताजी का स्वभाव अत्यन्त स्नेहमयी व आध्यात्मिक है तथा आपके पिताजी ने सदा ही निर्धनों के अधिकारों की रक्षा व सामाजिक कल्याण के लिए उदारतापूर्वक अपनी सम्पत्ति व्यय की ।

श्री राजन स्वामी बाल्यकाल से ही परिश्रमी, अध्ययनशील, सौम्य, मृदु भाषी, तथा तीक्ष्ण बुद्धि के धनी रहे हैं । विद्यार्थी जीवन में आप सदा कक्षा मे अव्वल रहते थे तथा समय बचाकर आप अगली कक्षा की पुस्तकें भी पढ़ लिया करते थे । संस्कृत भाषा में सदा से आपकी विशेष रुचि रही है ।

पूर्व संस्कारों,यदा-कदा मिले सत्संग, तथा आध्यात्मिक ग्रन्थों से मिले दिशानिर्देशानुसार आपने पहले मन्त्र जाप, तद्पश्चात ध्यान साधना प्रारम्भ कर दी । १४ वर्ष की छोटी सी आयु में आप प्रतिदिन घर पर ४-५ घण्टे की नियमित साधना करने लगे । कठोर साधनामयी दिनचर्या व सदा परमात्मा चिन्तन में डूबे रहने के कारण आपका मन सांसारिक गतिविधियों से विरक्त रहने लगा ।

स्वामी जी ने १८ वर्ष की अल्पायु में गृह त्याग कर सन्यास ग्रहण कर लिया । तद्पश्चात आप कभी अपने घर वापस नहीं गए । साधन के रूप में धन, वस्त्र, व भोजन सामग्री न ले जाकर , आप अपने साथ वेदों की प्रतिलिपि लेकर चले । हिमालय व उत्तर भारत के विभिन्न प्रान्तों की यात्रा करते हुए आप एकान्तवास में अपनी आत्मक्षुधा को तृप्त करने में लीन रहे । आपने योग की दीक्षा लेकर योगाभ्यास किया तथा वेदादि आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन भी किया । साधनाकाल में आपने कभी भी लेट कर शयन नहीं किया, अपितु ध्यान में बैठे-बैठे ही रात्रि बितायी ।


संयोगवश २० वर्ष की आयु मे आप श्री निजानन्द आश्रम के महान धर्मोपदेशक, धर्मवीर सरकार श्री जगदीश चन्द्र जी महाराज, के सम्पर्क में आए और श्री प्राणनाथ जी की अमृतमयी अखण्ड वाणी का ज्ञान पाकर आपको अत्यन्त मानसिक शान्ति प्राप्त हुई । आप श्री निजानन्द आश्रम, रतनपुरी में सरकार श्री के सान्निध्य में रहकर ज्ञानार्जन करने लगे । आपने श्री प्राणनाथ जी की वाणी एवं बीतक साहेब के साथ-साथ अन्य सभी धर्मग्रन्थों का भी गहन अध्ययन व मन्थन किया । परमहंस महाराज श्री रामरतन जी के जीवन का आप पर गहरा प्रभाव पड़ा । आपने आश्रम में प्रवास के दौरान १५ वर्षों तक सतत् साहित्य की सेवा की और अनेक ग्रन्थों की रचना व हिन्दी अनुवाद करके अपने सदगुरु के चरणों में प्रकाशन हेतु समर्पित कर दिया ।आपका प्रथम ग्रन्थ सत्यांजलि है, जो वेद शास्त्रों की साक्षियों से श्री निजानन्द सम्प्रदाय के सिद्धान्तों की पुष्टि करता है ।

सरकार श्री के धामगमन के पश्चात् आपने श्री प्राणनाथ जी द्वारा स्थापित मुक्तिपीठ पन्ना (मध्य प्रदेश) की पुण्य स्थली चोपड़ा जी मन्दिर के निर्जन स्थान पर ५ वर्षों तक कठोर साधना की । तद्पश्चात अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी व सदगुरु महाराज जी की अन्तःप्रेरणा से आपने २००५ में सरसावा में श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ की स्थापना की । इस संस्था के माध्यम से आप समाज में ब्रह्मज्ञान व शिक्षा का प्रचार करने में तल्लीन हैं तथा अपना शेष जीवन इसी महान उद्देश्य के लिए समर्पित कर दिया है ।