चितवनि - प्रश्नोत्तर
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चितवनि क्या है?
आत्मिक दृष्टि से परमधाम, युगल स्वरूप, तथा अपनी परआतम (आत्मा के मूल तन) को देखना ही चितवनि (ध्यान) है। सामान्य भाषा में इसे ध्यान, साधना, या meditation भी कहते हैं।
सर्वप्रथम सदगुरु श्री देवचन्द्र जी (श्री श्यामा जी) ने चितवनि के मार्ग पर चलकर दिखाया। चितवनि करते समय उन्हें साक्षात्कार भी हुआ। तत्पश्चात् महामति जी (श्री इन्द्रावती जी) ने इस मार्ग को अपनाया तथा अपनी12लौकिक लीला के अन्तिम तीन वर्ष पन्ना जी में चितवनि करके सुन्दरसाथ के लिए भी एक उदाहरण प्रस्तुत किया। उन पर समर्पित ५०० परमहंस सुन्दरसाथ ने भी चितवनि करके भरपूर लाभ उठाया। -
चितवनि की क्या आवश्यकता है?
चितवनि के बिना आत्म-जाग्रति सम्भव नहीं है। ज्ञान, प्रेम, सेवा, शुक्र बजाना, विनम्रता, संतोष, आदि का बहुत महत्व है, किन्तु इस जागनी ब्रह्माण्ड में चितवनि का आधार लिये बिना आत्म-जाग्रति की कल्पना नहीं की जा सकती है।
महामति जी के तन से श्री प्राणनाथ जी की लौकिक लीला समाप्त होने के पश्चात् चितवनि ही एकमात्र साधन है, जिससे अक्षरातीत युगल स्वरूप का साक्षात्कार, उनकी कृपा, प्रेम, आनन्द, व अन्य सभी उपलब्धियाँ प्राप्त की जी सकती हैं। सुन्दरसाथ के लिए तो यह परम धर्म है। -
साधना में सफलता के लिए कैसा आहार करना चाहिए?
चितवनि की प्रक्रिया में आहार शुद्धि का विशेष महत्व है। "आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः" का कथन अक्षरशः सत्य है। ध्यान (चितवनि) करने वालों को तामसिक और राजसिक भोजन का त्याग करना अति आवश्यक है। सभी दुर्गन्धित खाद्य पदार्थ (मांस, शराब, बासी भोजन, लहसुन, प्याज) तामसिक होते हैं। इनका सेवन करने वाला ध्यान का अधिकारी नहीं हो सकता। इसी प्रकार कटु, खट्टे, बहुत गर्म, रूखे, चाय, कॉफी तथा तीखी मिर्चों से युक्त पदार्थ राजसिक होते हैं, जो मन को चञ्चल और उत्तेजक बनाते हैं। ध्यान की उच्च अवस्था में पहुँचने के लिए इनका भी सेवन त्याग देना चाहिए।
भोजन के सम्बन्ध में एक सूत्र याद रखना चाहिए- "आधा पेट परम योगी, पौन पेट योगी, तथा पूरा पेट भोगी।" ब्राह्मी आवस्था को प्राप्त होने वाले ब्रह्ममुनि परमहंस हमेशा आधा पेट ही भोजन12करते हैं। पेट भर भोजन करने वाले लोग तामसिक भावों के शिकार बन जाते हैं, परिणामस्वरूप वे प्रेम लक्षणा भक्ति से कोसों दूर रह जाते हैं। चितवनि की राह पर चलने वाले सुन्दरसाथ को दुग्ध, फल, शाक, सब्जी, तथा शुद्ध सात्विक अन्न का अल्प मात्रा में सेवन करना चाहिए। जल का भी उचित प्रयोग मन को सात्विक बनाये रखने में सहायता करता है। -
चितवनि के लिए कैसा स्थान व समय उचित है?
चितवनि के लिए किसी स्वच्छ स्थान व पवित्र वातावरण का चयन करें। बन्द कमरे में बैठने से पहले यह सुनिश्चित कर लें कि कहीं से शुद्ध वायु का संचार अवश्य होता हो। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखे12 कि उस स्थान पर जरा भी ध्वनि न आये, अन्यथा चितवनि की गहराई में नहीं पहुँचा जा सकता। इसी कारण चितवनि के लिए प्रातः तीन से छः बजे का समय उत्तम माना जाता है। वैसे जब भी समय मिले तब कर सकते हैं।
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ध्यान में बैठने से पहले क्या तैयारी करनी चाहिए?
शरीर को स्थिर करने के लिए एक स्वच्छ और कोमल कम्बल आदि का आसन बनायें। उस पर एक मीटर श्वेत सूती कपड़ा बिछायें। तत्पश्चात् आधे भाग पर स्वयं बैठें तथा आधा भाग सदगुरु या धनी श्री राज के जोश के विराजमान होने के लिए छोड़ दीजिए।
नियमित प्राणायाम करने के अतिरिक्त चितवनि से तुरन्त पहले दो मिनट के लिए पीठ के बल लेटकर हल्के-हल्के भस्त्रिका प्राणायाम करना चाहिए। जब नासिका के दोनों छिद्रों से श्वास निकले तब12यह मान लेना चाहिए कि अब बाह्य सुष्मना प्रवाहित हो गयी है और यह ध्यान करने के लिए सर्वोत्तम समय है। इड़ा (बायें स्वर) तथा पिंगला (दाहिने स्वर) के प्रवाहित रहने पर मन चञ्चल बना रहेगा और गहन ध्यान की स्थिति प्राप्त नहीं हो सकेगी। बाह्य सुष्मना को प्रवाहित करके किसी भी समय चितवनि कर सकते हैं। -
आसन का क्या महत्व है?
चितवनि के प्रारम्भिक चरण में शरीर और मन को स्थिर करना होता है। यह योग का सामान्य सिद्धान्त है कि जब शरीर स्थिर हो जाता है, तो मन अपने आप स्थिर व एकाग्र हो जाता है। इसके लिए पद्मासन, सिद्धासन, सुखासन, सरलासन, स्वास्तिकासन, समत्वासन या वज्रासन में से किसी एक पर बैठने का अभ्यास करें। अँगना भाव लाने के लिए पद्मासन सर्वोपरि है। इसके द्वारा मन भी बहुत सात्विक हो जाता है। सिद्धासन में बैठने पर मन में कोई विकारयुक्त बात नहीं सोचनी चाहिए, अन्यथा पतन की भी सम्भावना बन सकती है। सरलासन, सुखासन, और समत्वासन पर लम्बे समय तक बैठने के लिए प्राणायाम का अभ्यास करना अति आवश्यक है।
किसी अभ्यस्त आसन में बैठे रहने पर शरीर में यदि खुजलाहट हो, तो खुजलाने की आदत न डालें। सद्गुरु धनी श्री देवचन्द्र जी का हाथ चितवनि में हिल गया था, जिसके कारण उनका ध्यान टूट गया था और दर्शन भी उस दिन बन्द हो गया। प्रारम्भ में यह प्रयास करें कि आप आसन पर बिना हिले-डुले कमर, पीठ, तथा गर्दन को एक सीध में रखते हुए १ से ३ घण्टे तक बैठ सकें। यदि आप एक घण्टे तक बिना हिले-डुले लगातार बैठ सकते हैं और उससे अधिक बैठना चाहते हैं, तो प्रति सप्ताह अपने आसन में पाँच मिनट की वृद्धि करते जायें। इस प्रक्रिया के द्वारा आप अपने आसन को कई घण्टे तक बढ़ा सकते हैं।
चितवनि से जुड़े ऑडियो and books
श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा में आयोजित होने वाले चितवनि शिविर व अन्य कार्यक्रमों के ऑडियो को आप यहाँ सुन सकते हैं।
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